बाल एवं युवा साहित्य >> आदर्श पौराणिक कहानियाँ आदर्श पौराणिक कहानियाँभगवतीशरण मिश्र
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प्रस्तुत है पौराणिक कहानियाँ
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पुराण हमारी संस्कृति के संवाहक हैं तथा हमारी समृद्ध
धरोहर भी। इनकी संख्या अठारह बताई जाती है किन्तु प्रमुख पुराणों में
ब्रह्माण्ड पुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण, स्कन्द पुराण, शिव पुराण,
मार्कण्डेय पुराण, विष्णु पुराण, गरुण पुराण, भागवत पुराण आदि आते हैं।
वाल्मीकि कृत रामायण भी पुराणों के अन्तर्गत ही आता है। भविष्य पुराण भी
प्रसिद्ध है।
पुराण एक तरह से इतिहास-ग्रन्थ ही हैं। इनमें विभिन्न महत्त्वपूर्ण घटनाओं, राजाओं-महाराजाओं, ऋषियों-महर्षियों, देवताओं, असुरों आदि की कथाएँ भरी पड़ी हैं। किसी विशेष देवता के नाम पर कोई पुराण है तो उसमें उसी देवता सम्बन्धित कथाओं और अन्तर कथाओं का वर्णन प्राप्त होता है, जैसे शिव पुराण में शिव से सम्बन्धित घटनाओं का उल्लेख मिलेगा तो मार्कण्डेय पुराण में मूलतः देवी की कथा प्राप्त होती है।
रामायण जहाँ राम-कथा को समर्पित है, वहीं श्री मद्भागवत पुराण में मुख्यतः श्रीकृष्ण की कथा मिलती है किन्तु सभी पुराणों में मूल विषय से हटकर अन्य विषयों के सम्बन्ध में जानकारी उपलब्ध है। श्रीमद्भागवत पुराण में ही अनेक अन्तर कथाएँ मिलती हैं। श्रीकृष्ण-कथा तो मुख्यतः दो स्कन्ध-दशम और एकादश स्कन्ध में ही सीमित है।
सर्वाधिक बड़ा-पुराण महाभारत पुराण है। इसमें एक लाख श्लोक हैं। इतना बड़ा महाकाव्य किसी भी अन्य भाषा में चाहे वह देशी हो या विदेशी उपलब्ध नहीं है। महाभारत पुराण का ही एक अंश गीता है जिसका आध्यात्मिक एवं दार्शनिक महत्त्व इतना महत्त्वपूर्ण है कि पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने भी इसकी प्रशंसा की है तथा कई भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है।
अपने पुराण-ग्रन्थों पर हमारा गर्व स्वाभाविक है। पुराण प्राचीन ज्ञान के भण्डार हैं साथ ही इनमें कुछ ऐसी बातें भी हैं जो विश्वसनीय नहीं लगतीं किन्तु इनमें अधिकांश की विश्वसनीयता आज सिद्ध हो रही है। उदाहरण के लिए रामायण में पुष्पक-विमान का वर्णन। कई अन्य पुराणों में भी आकाशचारी विमानों का उल्लेख है। जिस समय ये पुराण लिखे गए उस समय विमान क्या मोटरगाड़ी का भी पता नहीं था। आलोचक विमानों के उल्लेख को हास्यास्पद मानते थे किन्तु आज विमान आसमान में उड़ने लगे। आलोचकों का मुख स्वतः बन्द हो गया।
महाभारत पुराण में घोर विध्वंसक अस्त्र-शस्त्रों का उल्लेख है। पहले यह बात कपोल-कल्पना लगती थी किन्तु आज जब परमाणु-अस्त्रों ने विध्वंस का ताण्डव आरम्भ किया है तब महाभारत में वर्णित अस्त्र-शस्त्रों की वास्तविकता पर प्रश्न-चिह्न लगाना कठिन हो गया है।
पुराण एक तरह से वेदों की ही व्याख्या करते हैं। वेदों को सभी ज्ञान-विज्ञान का भण्डार माना गया है तो यह सर्वथा सत्य है क्योंकि आज के अधिकांश आविष्कारों का उल्लेख पुराणों के मूल वेदों में प्राप्त हो जाता है।
ऐसे ग्रन्थ और किसी भाषा या देश में उपलब्ध नहीं हैं। ज्ञान-विज्ञान से पूर्ण इन ग्रन्थों के कारण ही भारत को विश्व-गुरु की उपाधि प्राप्त थी।
अफ़सोस की बात है कि आज हम अपने इन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों से अपरिचित होते जा रहे हैं। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से प्रभावित नई पीढ़ी को तो इन उपयोगी तथा बहुमूल्य ग्रन्थों से कोई लेना-देना ही नहीं रहा। यही कारण है कि आज वह पूरी तरह दिग्भ्रमित हो रही है। उच्चतर मानवीय मूल्यों के प्रति उसमें कोई आस्था नहीं रह गई है। बुजुर्गों यहाँ तक कि माता-पिता के प्रति भी उनकी श्रद्धा समाप्त हो गई है। फलतः परिवारों का विखण्डन हो रहा है। परिवार के वृद्ध और वृद्धाएँ वृद्धाश्रमों में रहने को विवश हो रहे हैं।
इस पुस्तक के लेखन के मूल में ये सारी समस्याएँ ही हैं। नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये बाल-पौराणिक कहानियाँ।
इस पुस्तक को प्रस्तुत करना आसान नहीं था। पुराण बालकों के लिए नहीं रचे गए। भागवत् आदि पुराण तो बहुत विद्वानों के पल्ले भी नहीं पड़ते। उक्ति है—
पुराण एक तरह से इतिहास-ग्रन्थ ही हैं। इनमें विभिन्न महत्त्वपूर्ण घटनाओं, राजाओं-महाराजाओं, ऋषियों-महर्षियों, देवताओं, असुरों आदि की कथाएँ भरी पड़ी हैं। किसी विशेष देवता के नाम पर कोई पुराण है तो उसमें उसी देवता सम्बन्धित कथाओं और अन्तर कथाओं का वर्णन प्राप्त होता है, जैसे शिव पुराण में शिव से सम्बन्धित घटनाओं का उल्लेख मिलेगा तो मार्कण्डेय पुराण में मूलतः देवी की कथा प्राप्त होती है।
रामायण जहाँ राम-कथा को समर्पित है, वहीं श्री मद्भागवत पुराण में मुख्यतः श्रीकृष्ण की कथा मिलती है किन्तु सभी पुराणों में मूल विषय से हटकर अन्य विषयों के सम्बन्ध में जानकारी उपलब्ध है। श्रीमद्भागवत पुराण में ही अनेक अन्तर कथाएँ मिलती हैं। श्रीकृष्ण-कथा तो मुख्यतः दो स्कन्ध-दशम और एकादश स्कन्ध में ही सीमित है।
सर्वाधिक बड़ा-पुराण महाभारत पुराण है। इसमें एक लाख श्लोक हैं। इतना बड़ा महाकाव्य किसी भी अन्य भाषा में चाहे वह देशी हो या विदेशी उपलब्ध नहीं है। महाभारत पुराण का ही एक अंश गीता है जिसका आध्यात्मिक एवं दार्शनिक महत्त्व इतना महत्त्वपूर्ण है कि पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने भी इसकी प्रशंसा की है तथा कई भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है।
अपने पुराण-ग्रन्थों पर हमारा गर्व स्वाभाविक है। पुराण प्राचीन ज्ञान के भण्डार हैं साथ ही इनमें कुछ ऐसी बातें भी हैं जो विश्वसनीय नहीं लगतीं किन्तु इनमें अधिकांश की विश्वसनीयता आज सिद्ध हो रही है। उदाहरण के लिए रामायण में पुष्पक-विमान का वर्णन। कई अन्य पुराणों में भी आकाशचारी विमानों का उल्लेख है। जिस समय ये पुराण लिखे गए उस समय विमान क्या मोटरगाड़ी का भी पता नहीं था। आलोचक विमानों के उल्लेख को हास्यास्पद मानते थे किन्तु आज विमान आसमान में उड़ने लगे। आलोचकों का मुख स्वतः बन्द हो गया।
महाभारत पुराण में घोर विध्वंसक अस्त्र-शस्त्रों का उल्लेख है। पहले यह बात कपोल-कल्पना लगती थी किन्तु आज जब परमाणु-अस्त्रों ने विध्वंस का ताण्डव आरम्भ किया है तब महाभारत में वर्णित अस्त्र-शस्त्रों की वास्तविकता पर प्रश्न-चिह्न लगाना कठिन हो गया है।
पुराण एक तरह से वेदों की ही व्याख्या करते हैं। वेदों को सभी ज्ञान-विज्ञान का भण्डार माना गया है तो यह सर्वथा सत्य है क्योंकि आज के अधिकांश आविष्कारों का उल्लेख पुराणों के मूल वेदों में प्राप्त हो जाता है।
ऐसे ग्रन्थ और किसी भाषा या देश में उपलब्ध नहीं हैं। ज्ञान-विज्ञान से पूर्ण इन ग्रन्थों के कारण ही भारत को विश्व-गुरु की उपाधि प्राप्त थी।
अफ़सोस की बात है कि आज हम अपने इन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों से अपरिचित होते जा रहे हैं। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से प्रभावित नई पीढ़ी को तो इन उपयोगी तथा बहुमूल्य ग्रन्थों से कोई लेना-देना ही नहीं रहा। यही कारण है कि आज वह पूरी तरह दिग्भ्रमित हो रही है। उच्चतर मानवीय मूल्यों के प्रति उसमें कोई आस्था नहीं रह गई है। बुजुर्गों यहाँ तक कि माता-पिता के प्रति भी उनकी श्रद्धा समाप्त हो गई है। फलतः परिवारों का विखण्डन हो रहा है। परिवार के वृद्ध और वृद्धाएँ वृद्धाश्रमों में रहने को विवश हो रहे हैं।
इस पुस्तक के लेखन के मूल में ये सारी समस्याएँ ही हैं। नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये बाल-पौराणिक कहानियाँ।
इस पुस्तक को प्रस्तुत करना आसान नहीं था। पुराण बालकों के लिए नहीं रचे गए। भागवत् आदि पुराण तो बहुत विद्वानों के पल्ले भी नहीं पड़ते। उक्ति है—
‘विद्यावतां भागवते
परीक्षा’
अर्थात् विद्वानों की परीक्षा भागवत में ही
होती है।
स्पष्ट है कि पुराणों की कथाओं को बालोपयोगी बनाने में विशेष शिल्प और भाषा की आवश्यकता थी।
पूरी तरह यह प्रयास किया गया है कि इस पुस्तक का स्तर बालकों की बुद्धि के अनुकूल हो। फिर भी कोई यह नहीं समझे कि इसमें मात्र सरल शब्दों का ही प्रयोग हुआ है।
यह पुस्तक उपदेशात्मक होने के साथ-साथ ज्ञानवर्धक भी है। अगर इसके पढ़ने के बाद बालका का ज्ञान जहाँ था वहीं रह गया तो पुस्तक का वास्तविक उद्देश्य अधूरा ही रह जाएगा, अतः कहीं-कहीं किंचित् कठिन शब्दों के प्रयोग से भी मुँह नहीं मोड़ा गया है। शब्दकोशों का प्रयोग करना भी हमारे बाल-पाठकों को आना ही चाहिए।
स्पष्टतः इन कहानियों के दो लक्ष्य हैं—
(1) अपनी संस्कृति और विरासत से परिचित करा उनके अन्दर मानवीय मूल्यों को स्थापित करना।
(2) बालकों के ज्ञान-स्तर को बढ़ाना।
कहानियों के चुनाव में कई बातों का ध्यान रखा गया है। कुछ पौराणिक बालकों की कथाएँ दी गईं जिनमें किसी प्रकार की विशेषता है चाहे वह विद्वता हो, वीरता हो, अथवा गुरुजनों, माता-पिता आदि के प्रति श्रद्धा हो।
किन्तु यह पुस्तक मात्र पौराणिक बालकों की कहानी नहीं है। इसमें चरित्रवान व्यक्तियों, ऋषियों, महर्षियों, दानवीरों, विद्वानों और प्रजा-पालकों नरेशों की भी कथाएँ हैं। इन कथाओं से बाल-पाठकों को अपने चरित्र-निर्माण की निश्चित प्रेरणा मिल सकती है।
पुस्तक में घटनापरक कहानियाँ भी हैं जो मनोरंजन के साथ-साथ जीवनोपयोगी शिक्षा भी प्रदान करती हैं। कहानी से मनोरंजन के तत्व को बहिष्कृत कर देना उसकी आत्मा की हत्या करना है। कहानी-कला का आरम्भ मुख्यतः मनोरंजन को ध्यान में रखकर ही हुआ। इस संग्रह में भी मनोरंजनतत्त्व प्रधान है।
कुछ कहानियाँ ऐसे भी मिलेंगी जिनमें वर्णित विषय अविश्वसनीय और विस्मयकारी प्रतीत हों किन्तु केवल इन कारणों से ही इन कहानियों के संग्रह से बाहर नहीं रख दिया गया है क्योंकि क्या पता जो घटना आज कल्पित लगती हो कल वही जाकर वास्तविक बन जाए। पुष्पक-विमानों और विध्वंसकारी अस्त्र-शस्त्रों का उदाहरण पहले दिया जा चुका है।
संक्षेपतः ये कहानियाँ बालकों के चरित्र-निर्माण, उनके ज्ञानवर्धक, मूल्यों के प्रति उनकी आस्था तथा अपनी संस्कृति और विरासत से उनको परिचित कराने के उद्देश्य से लिखी गई है। अगर इस लक्ष्य की प्राप्ति में मुझे थोड़ी भी सफलता मिल सकी हो तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझूँगा।
इस पुस्तक के लेखन में आत्माराम एण्ड संस के श्री सुधीर और उनके पिता की बहुत बड़ी प्रेरणा रही है। इस संस्थान के एक अधिकारी श्री सुभाष तनेजा का सहयोग भी प्राप्त हुआ है।
इन सबों का तथा अपने साहित्यिक मित्रों एवं सुधी पाठकों का विशेष रूप से आभार मानता हूँ।
स्पष्ट है कि पुराणों की कथाओं को बालोपयोगी बनाने में विशेष शिल्प और भाषा की आवश्यकता थी।
पूरी तरह यह प्रयास किया गया है कि इस पुस्तक का स्तर बालकों की बुद्धि के अनुकूल हो। फिर भी कोई यह नहीं समझे कि इसमें मात्र सरल शब्दों का ही प्रयोग हुआ है।
यह पुस्तक उपदेशात्मक होने के साथ-साथ ज्ञानवर्धक भी है। अगर इसके पढ़ने के बाद बालका का ज्ञान जहाँ था वहीं रह गया तो पुस्तक का वास्तविक उद्देश्य अधूरा ही रह जाएगा, अतः कहीं-कहीं किंचित् कठिन शब्दों के प्रयोग से भी मुँह नहीं मोड़ा गया है। शब्दकोशों का प्रयोग करना भी हमारे बाल-पाठकों को आना ही चाहिए।
स्पष्टतः इन कहानियों के दो लक्ष्य हैं—
(1) अपनी संस्कृति और विरासत से परिचित करा उनके अन्दर मानवीय मूल्यों को स्थापित करना।
(2) बालकों के ज्ञान-स्तर को बढ़ाना।
कहानियों के चुनाव में कई बातों का ध्यान रखा गया है। कुछ पौराणिक बालकों की कथाएँ दी गईं जिनमें किसी प्रकार की विशेषता है चाहे वह विद्वता हो, वीरता हो, अथवा गुरुजनों, माता-पिता आदि के प्रति श्रद्धा हो।
किन्तु यह पुस्तक मात्र पौराणिक बालकों की कहानी नहीं है। इसमें चरित्रवान व्यक्तियों, ऋषियों, महर्षियों, दानवीरों, विद्वानों और प्रजा-पालकों नरेशों की भी कथाएँ हैं। इन कथाओं से बाल-पाठकों को अपने चरित्र-निर्माण की निश्चित प्रेरणा मिल सकती है।
पुस्तक में घटनापरक कहानियाँ भी हैं जो मनोरंजन के साथ-साथ जीवनोपयोगी शिक्षा भी प्रदान करती हैं। कहानी से मनोरंजन के तत्व को बहिष्कृत कर देना उसकी आत्मा की हत्या करना है। कहानी-कला का आरम्भ मुख्यतः मनोरंजन को ध्यान में रखकर ही हुआ। इस संग्रह में भी मनोरंजनतत्त्व प्रधान है।
कुछ कहानियाँ ऐसे भी मिलेंगी जिनमें वर्णित विषय अविश्वसनीय और विस्मयकारी प्रतीत हों किन्तु केवल इन कारणों से ही इन कहानियों के संग्रह से बाहर नहीं रख दिया गया है क्योंकि क्या पता जो घटना आज कल्पित लगती हो कल वही जाकर वास्तविक बन जाए। पुष्पक-विमानों और विध्वंसकारी अस्त्र-शस्त्रों का उदाहरण पहले दिया जा चुका है।
संक्षेपतः ये कहानियाँ बालकों के चरित्र-निर्माण, उनके ज्ञानवर्धक, मूल्यों के प्रति उनकी आस्था तथा अपनी संस्कृति और विरासत से उनको परिचित कराने के उद्देश्य से लिखी गई है। अगर इस लक्ष्य की प्राप्ति में मुझे थोड़ी भी सफलता मिल सकी हो तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझूँगा।
इस पुस्तक के लेखन में आत्माराम एण्ड संस के श्री सुधीर और उनके पिता की बहुत बड़ी प्रेरणा रही है। इस संस्थान के एक अधिकारी श्री सुभाष तनेजा का सहयोग भी प्राप्त हुआ है।
इन सबों का तथा अपने साहित्यिक मित्रों एवं सुधी पाठकों का विशेष रूप से आभार मानता हूँ।
कुएँ का गिरगिट
श्रीकृष्ण उन दिनों अपनी राजधानी द्वारका
पुरी में ही रह
रहे थे। जरासंध के उत्पातों से तंग आकर उन्होंने वहाँ से दूर पश्चिमी
समुद्र के पास द्वारका में अपनी राजधानी बनाई थी।
यह राजधानी अत्यन्त सुंदर थी। इसमें ऊँचे-ऊँचे महल और अट्टालिकाएँ थीं। ऊँचे शिखरों और लहराते ध्वजों वाले मन्दिर थे। सुन्दर और आकर्षक वस्तुओं से पटे बड़े-बड़े बाजार थे। इसकी सड़कें चौड़ी और चिकनी थीं। इन पर दोनों शाम सुगन्धित जल का छिड़काव होता था। बाजार में सुन्दर-सुन्दर सरोवर और जलाशय थे जिनकी सीढ़ियाँ सफेद संगमरमर की बनी हुई थीं। इन तालाबों में सदा जल भरा रहता था जिसमें कमल, कुमुदनी आदि विविधरंगी और सुगन्धपूरित पुष्प खिले रहते थे।
फूलों पर भौरे मंडराते रहते थे, जिसके फलस्वरूप कोई उनके पास जाकर उन्हें तोड़ने का प्रयास नहीं करता था। इन जलाशयों में विविध मछलियाँ अठखेलियाँ करती थीं, जिसके फलस्वरूप इन सरोवरों की सोभा निराली हो उठती थी। नगर के भीतर ऐसी शोभा थी तो बाहर भी वह कुछ कम नहीं थी। नगर के किनारे-किनारे बड़े-बड़े और मन मोहक उपवन लगे थे। कुछ में सभी ऋतुओं में फल देने वाले फलदार वृक्ष लगे थे तो कुछ में सभी प्रकार के गन्ध-पूरित फूल। उन फूलों में सभी थे-गुलाब, जूही चमेली बेला, रातरानी कनैल, अड़हुल, गेंदा, गन्धराज आदि।
इन सुन्दर उपवनों में नगरवासी प्रायः भ्रमण-हेतु आते ही रहते थे शुद्ध वायु के लिए उपवनों से अच्छा स्थान नहीं हो सकता था।
एक दिन श्रीकृष्ण-पुत्र प्रद्युम्न अपने कुछ साथियों के साथ जैसे चारुभानु, गद और साम्ब आदि के साथ उपवन के परिभ्रमण को आए। वह देर तक इधर-उधर घूमते फूलों की शोभा निहारते रहे और उनकी गन्ध से अपने को तृप्त करते रहे।
घूमते-घूमते उन्हें प्यास लग आई। वे प्यास बुझाने के लिए पानी ढूँढ़ते रहे पर दुर्भाग्यवश पानी उन्हें कहीं नहीं मिला। नगर के अन्दर तो कई सरोवर थे पर नई बस रही राजधानी के उपवनों में अभी तक जलाशय की व्यवस्था करने की बात किसी के ध्यान में नहीं आई थी।
श्रीकृष्ण-पुत्र प्रद्युम्न ने सोचा, वह पिता से कहकर इन उपवनों में सुन्दर स्वच्छ जलाशयों का निर्माण कराएँगे जिससे आगे चलकर किसी को पेयजल के संकट का सामना नहीं करना पड़े। पर यह तो भविष्य की बात थी। अभी जो सभी पिपासा से पीड़ित हो रहे थे, उसका क्या उपाय था।
घूमते-घूमते वे एक कुएँ के पास पहुँचे। उन्हें कुएँ को देखकर बहुत प्रसन्नता हुई। प्यास से व्याकुल उन लोगों ने सोचा कि उनकी प्यास अब शान्त होकर रहेगी। वे कुएँ के पास गये और उसके भीतर झाँका तो उनकी सारी आशा निराशा में परिवर्तित हो गई। कुएँ में एक बूँद जल नहीं था। पता नहीं वह कब से सूखा पड़ा था किन्तु उसमें एक विचित्र जीव को देख कर उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही। उसमें एक बहुत बड़ा गिरगिट पड़ा था। कुआँ काफी लम्बा-चौड़ा और गहरा था। गिरगिट का आकार किसी पर्वत की तरह लग रहा था। कुछ देर तक तो इन लोगों ने गिरगिट को कौतूहल पूर्वक देखा किन्तु शीघ्र ही उसकी छटपटाहट से द्रवित हो गये। वह कुएँ से निकलने को बेचैन था किन्तु लाख प्रयासों के बाद भी वह उससे बाहर नहीं निकल पा रहा था। वह कुएँ की दीवार पर, शक्ति लगाकर चढ़ने का प्रयास करता किन्तु थोड़ा ऊपर जाने के बाद ही फिसल कर गिर पड़ता। वह बारी-बारी से कुएँ के चारों दीवारों पर चढ़ने का प्रयास करता किन्तु थोड़ा ऊपर जाने के बाद ही फिसलकर गिर पड़ता।
इन लोगों को उसके कष्ट के निवारण का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। दीवारों से फिसलने और गिरने के कारण उसका शरीर लहूलुहान हो रहा था। दर्शकों को इन पर बहुत दया आई। उन्होंने पेड़ की डालियों और रस्सियों के सहारे उसको निकालने का प्रयास किया किन्तु इस पर्वताकार गिरगिट को निकालना आसान नहीं था। कोई भी रस्सी या पेड़ की डाली उसके भार को सहन नहीं कर पाती और टूट जाती। वे निराश हो गए और उन्होंने मन ही मन भगवान कृष्ण को स्मरण किया। वह तत्काल उस कुएँ के पास पहुँच गए। जिसमें वह गिरगिट गिरा पड़ा था। दर्शकों ने उन्हें बताया कि इस दुःखी जीव को निकालने का उन्होंने बहुत प्रयास किया परन्तु वे उसे निकालने में सफल नहीं हो सके। उसके दुःख से सभी दुःखी हैं।
उन्होंने आगे कहा, ‘पता नहीं कब से भूख-प्यास से पीड़ित इस अन्धे कुएँ में पड़ा है। आप सर्व-शक्तिमान हैं। कृपाकर इस निरीह प्राणी को इस अन्धकूप से निकालिए।’ भगवान श्रीकृष्ण के लिए यह कौन-सी बड़ी बात थी ? उन्होंने बाएँ हाथ से ही उस विशाल गिरगिट को कुएँ से बाहर निकाल दिया।
निकलते ही वह गिरगिट गिरगिट नहीं रहा। एक प्रकाशवान पुरुष के रूप में वह परिवर्तित हो गया। उसके सिर पर मुकुट और शेष शरीर पर बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण शोभा पा रहे थे। उसका रंग इतना गोरा था कि लगता था कि वह कच्चे सोने से बना है। इस तेजोमय पुरुष को देखकर भगवान श्रीकृष्ण सब कुछ समझ गए किन्तु अन्य लोगों की जानकारी के लिए उन्होंने उससे पूछा—‘आप देखने से ही कोई देवपुरुष लगते हैं। आपको गिरगिट की योनि में जन्म लेकर इतना कष्ट क्यों सहना पड़ा ? निश्चित ही आप पूर्व जन्म में कोई पराक्रमी राजा-महराजा थे।’
उस पुरुष ने श्रीकृष्ण को प्रणाम करते हुए कहा, ‘आपका सोचना एकदम ठीक है। आप कोई अन्तर्यामी हैं ? आप से क्या छिपा है फिर भी आप पूछते हैं तो बताना ही पड़ेगा। क्योंकि आपकी मुझ पर अपार कृपा है। आपके दर्शन-मात्र से बिना कोई यज्ञ जाप या तपस्या किए गिरगिट की योनि से मेरा उद्धार हो गया।
‘मैं पहले नृग नामक राजा था। मेरे पास अपार सम्पत्ति थी। मैं उसे अपने भोग-विलास में नहीं लगाकर दूसरों के मध्य उनके दान में लगा रहता था। दान लेने वालों की मेरे यहां भीड़ लगी रहती थी। विशेषकर ब्राह्मणों की।
‘मैंने कई दुधारी गायों को बछड़ों के साथ ब्राह्मणों को दान दिया। दान देने के पूर्व मैं गायों के सींगों को सोने से मढ़वाना नहीं भूलता था।
‘उनके खुरों में चाँदी मढ़वाता था तथा उन्हें रेशमी वस्त्र, स्वर्णनिर्मित हार और अन्य आभूषणों से सजाकर ही दान करता था। भगवान ! मेरी दानशीलता प्रसिद्ध थी। मैंने गायें ही नहीं, भूमि, सोना, घर, घोड़े, हाथी, तिलों के पर्वत, चाँदी, शय्या, वस्त्र, रत्न आदि दान किए। अनेक यज्ञों का अनुष्ठान किया। बहुत से कुएँ जलाशय आदि बनवाए। भगवान कृष्ण ने पूछा, ‘इतना सब करने के बाद भी आपको यह निकृष्ट गिरगिट योनि क्यों प्राप्त हुई ?’
राजा नृग ने कहा ‘भगवान ने ठीक ही पूछा। एक अनजानी गलती से मेरी यह दुर्दशा हुई। एक दिन ऐसे तपस्वी ब्राह्मण की गाय, जो कभी दान नहीं लेता था मेरी गायों के झुण्ड में आ मिली। मुझे इसका कोई पता नहीं था। मैंने अन्य गायों की तरह उसे भी सजा-सँवार कर किसी अन्य ब्राह्मण को दान में दे दिया।
‘जब वह ब्राह्मण इस सजी-सजाई गाय को लेकर चला तो गाय के वास्तविक मालिक से उसकी मुलाकात हो गई।
उसने कहा, ‘यह गाय मेरी है तुम कहाँ लिये जा रहे हो ? इसको सजाने-सँवारने से मैं इसको पहचानने में भूल नहीं सकता।’
दान लिए ब्राह्मण ने कहा, ‘गाय तुम्हारी नहीं मेरी है क्योंकि राजा नृग ने मुझे इसे दान में दिया है। वे दोनों ब्राह्मण आपस में झगड़ते हुए मेरे समीप पहुँचे। एक ने कहा—‘यह गाय मुझे अभी-अभी दान में दी गई है।’ दूसरे ने कहा, ‘यदि ऐसी बात है तो राजा द्वारा मेरी गाय चुरा ली गई है।’
मैंने दोनों ब्राह्मणों से अनुनय-विनय की और कहा, ‘मैं लाख उच्चकोटि की गाय दूँगा। आप लोग यह गाय मुझे वापिस कर दीजिए।’
गाय के वास्तविक मालिक ने कहा, ‘मैं अपनी गाय के बदले कुछ नहीं लूँगा और वह चला गया।’
दूसरे ने कहा, ‘एक लाख क्या कई लाख गाएँ भी मुझे दीजिए तो भी मैं लेने को तैयार नहीं।’ और दूसरा ब्राह्मण भी चला गया।
‘कालक्रम से मेरी मृत्यु हुई। मैं यमलोक पहुँचा।’ यमराज ने पूछा, ‘आप ने बहुत पुण्य कार्य किए हैं किन्तु एक छोटा-सा पाप भी आपसे हुआ है। भले ही अनजाने में हुआ हो। आप बताइए कि आप पहले अपने पाप का फल भोगेंगे अथवा पुण्य का ?’ ‘‘मैंने कहा, ‘पहले पाप का ही भोग लेता हूँ।’ मेरे कहते ही मैं विशाल गिरगिट बन कर धरती पर आ गिरा। यही मेरी कहानी है।’’
यह राजधानी अत्यन्त सुंदर थी। इसमें ऊँचे-ऊँचे महल और अट्टालिकाएँ थीं। ऊँचे शिखरों और लहराते ध्वजों वाले मन्दिर थे। सुन्दर और आकर्षक वस्तुओं से पटे बड़े-बड़े बाजार थे। इसकी सड़कें चौड़ी और चिकनी थीं। इन पर दोनों शाम सुगन्धित जल का छिड़काव होता था। बाजार में सुन्दर-सुन्दर सरोवर और जलाशय थे जिनकी सीढ़ियाँ सफेद संगमरमर की बनी हुई थीं। इन तालाबों में सदा जल भरा रहता था जिसमें कमल, कुमुदनी आदि विविधरंगी और सुगन्धपूरित पुष्प खिले रहते थे।
फूलों पर भौरे मंडराते रहते थे, जिसके फलस्वरूप कोई उनके पास जाकर उन्हें तोड़ने का प्रयास नहीं करता था। इन जलाशयों में विविध मछलियाँ अठखेलियाँ करती थीं, जिसके फलस्वरूप इन सरोवरों की सोभा निराली हो उठती थी। नगर के भीतर ऐसी शोभा थी तो बाहर भी वह कुछ कम नहीं थी। नगर के किनारे-किनारे बड़े-बड़े और मन मोहक उपवन लगे थे। कुछ में सभी ऋतुओं में फल देने वाले फलदार वृक्ष लगे थे तो कुछ में सभी प्रकार के गन्ध-पूरित फूल। उन फूलों में सभी थे-गुलाब, जूही चमेली बेला, रातरानी कनैल, अड़हुल, गेंदा, गन्धराज आदि।
इन सुन्दर उपवनों में नगरवासी प्रायः भ्रमण-हेतु आते ही रहते थे शुद्ध वायु के लिए उपवनों से अच्छा स्थान नहीं हो सकता था।
एक दिन श्रीकृष्ण-पुत्र प्रद्युम्न अपने कुछ साथियों के साथ जैसे चारुभानु, गद और साम्ब आदि के साथ उपवन के परिभ्रमण को आए। वह देर तक इधर-उधर घूमते फूलों की शोभा निहारते रहे और उनकी गन्ध से अपने को तृप्त करते रहे।
घूमते-घूमते उन्हें प्यास लग आई। वे प्यास बुझाने के लिए पानी ढूँढ़ते रहे पर दुर्भाग्यवश पानी उन्हें कहीं नहीं मिला। नगर के अन्दर तो कई सरोवर थे पर नई बस रही राजधानी के उपवनों में अभी तक जलाशय की व्यवस्था करने की बात किसी के ध्यान में नहीं आई थी।
श्रीकृष्ण-पुत्र प्रद्युम्न ने सोचा, वह पिता से कहकर इन उपवनों में सुन्दर स्वच्छ जलाशयों का निर्माण कराएँगे जिससे आगे चलकर किसी को पेयजल के संकट का सामना नहीं करना पड़े। पर यह तो भविष्य की बात थी। अभी जो सभी पिपासा से पीड़ित हो रहे थे, उसका क्या उपाय था।
घूमते-घूमते वे एक कुएँ के पास पहुँचे। उन्हें कुएँ को देखकर बहुत प्रसन्नता हुई। प्यास से व्याकुल उन लोगों ने सोचा कि उनकी प्यास अब शान्त होकर रहेगी। वे कुएँ के पास गये और उसके भीतर झाँका तो उनकी सारी आशा निराशा में परिवर्तित हो गई। कुएँ में एक बूँद जल नहीं था। पता नहीं वह कब से सूखा पड़ा था किन्तु उसमें एक विचित्र जीव को देख कर उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही। उसमें एक बहुत बड़ा गिरगिट पड़ा था। कुआँ काफी लम्बा-चौड़ा और गहरा था। गिरगिट का आकार किसी पर्वत की तरह लग रहा था। कुछ देर तक तो इन लोगों ने गिरगिट को कौतूहल पूर्वक देखा किन्तु शीघ्र ही उसकी छटपटाहट से द्रवित हो गये। वह कुएँ से निकलने को बेचैन था किन्तु लाख प्रयासों के बाद भी वह उससे बाहर नहीं निकल पा रहा था। वह कुएँ की दीवार पर, शक्ति लगाकर चढ़ने का प्रयास करता किन्तु थोड़ा ऊपर जाने के बाद ही फिसल कर गिर पड़ता। वह बारी-बारी से कुएँ के चारों दीवारों पर चढ़ने का प्रयास करता किन्तु थोड़ा ऊपर जाने के बाद ही फिसलकर गिर पड़ता।
इन लोगों को उसके कष्ट के निवारण का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। दीवारों से फिसलने और गिरने के कारण उसका शरीर लहूलुहान हो रहा था। दर्शकों को इन पर बहुत दया आई। उन्होंने पेड़ की डालियों और रस्सियों के सहारे उसको निकालने का प्रयास किया किन्तु इस पर्वताकार गिरगिट को निकालना आसान नहीं था। कोई भी रस्सी या पेड़ की डाली उसके भार को सहन नहीं कर पाती और टूट जाती। वे निराश हो गए और उन्होंने मन ही मन भगवान कृष्ण को स्मरण किया। वह तत्काल उस कुएँ के पास पहुँच गए। जिसमें वह गिरगिट गिरा पड़ा था। दर्शकों ने उन्हें बताया कि इस दुःखी जीव को निकालने का उन्होंने बहुत प्रयास किया परन्तु वे उसे निकालने में सफल नहीं हो सके। उसके दुःख से सभी दुःखी हैं।
उन्होंने आगे कहा, ‘पता नहीं कब से भूख-प्यास से पीड़ित इस अन्धे कुएँ में पड़ा है। आप सर्व-शक्तिमान हैं। कृपाकर इस निरीह प्राणी को इस अन्धकूप से निकालिए।’ भगवान श्रीकृष्ण के लिए यह कौन-सी बड़ी बात थी ? उन्होंने बाएँ हाथ से ही उस विशाल गिरगिट को कुएँ से बाहर निकाल दिया।
निकलते ही वह गिरगिट गिरगिट नहीं रहा। एक प्रकाशवान पुरुष के रूप में वह परिवर्तित हो गया। उसके सिर पर मुकुट और शेष शरीर पर बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण शोभा पा रहे थे। उसका रंग इतना गोरा था कि लगता था कि वह कच्चे सोने से बना है। इस तेजोमय पुरुष को देखकर भगवान श्रीकृष्ण सब कुछ समझ गए किन्तु अन्य लोगों की जानकारी के लिए उन्होंने उससे पूछा—‘आप देखने से ही कोई देवपुरुष लगते हैं। आपको गिरगिट की योनि में जन्म लेकर इतना कष्ट क्यों सहना पड़ा ? निश्चित ही आप पूर्व जन्म में कोई पराक्रमी राजा-महराजा थे।’
उस पुरुष ने श्रीकृष्ण को प्रणाम करते हुए कहा, ‘आपका सोचना एकदम ठीक है। आप कोई अन्तर्यामी हैं ? आप से क्या छिपा है फिर भी आप पूछते हैं तो बताना ही पड़ेगा। क्योंकि आपकी मुझ पर अपार कृपा है। आपके दर्शन-मात्र से बिना कोई यज्ञ जाप या तपस्या किए गिरगिट की योनि से मेरा उद्धार हो गया।
‘मैं पहले नृग नामक राजा था। मेरे पास अपार सम्पत्ति थी। मैं उसे अपने भोग-विलास में नहीं लगाकर दूसरों के मध्य उनके दान में लगा रहता था। दान लेने वालों की मेरे यहां भीड़ लगी रहती थी। विशेषकर ब्राह्मणों की।
‘मैंने कई दुधारी गायों को बछड़ों के साथ ब्राह्मणों को दान दिया। दान देने के पूर्व मैं गायों के सींगों को सोने से मढ़वाना नहीं भूलता था।
‘उनके खुरों में चाँदी मढ़वाता था तथा उन्हें रेशमी वस्त्र, स्वर्णनिर्मित हार और अन्य आभूषणों से सजाकर ही दान करता था। भगवान ! मेरी दानशीलता प्रसिद्ध थी। मैंने गायें ही नहीं, भूमि, सोना, घर, घोड़े, हाथी, तिलों के पर्वत, चाँदी, शय्या, वस्त्र, रत्न आदि दान किए। अनेक यज्ञों का अनुष्ठान किया। बहुत से कुएँ जलाशय आदि बनवाए। भगवान कृष्ण ने पूछा, ‘इतना सब करने के बाद भी आपको यह निकृष्ट गिरगिट योनि क्यों प्राप्त हुई ?’
राजा नृग ने कहा ‘भगवान ने ठीक ही पूछा। एक अनजानी गलती से मेरी यह दुर्दशा हुई। एक दिन ऐसे तपस्वी ब्राह्मण की गाय, जो कभी दान नहीं लेता था मेरी गायों के झुण्ड में आ मिली। मुझे इसका कोई पता नहीं था। मैंने अन्य गायों की तरह उसे भी सजा-सँवार कर किसी अन्य ब्राह्मण को दान में दे दिया।
‘जब वह ब्राह्मण इस सजी-सजाई गाय को लेकर चला तो गाय के वास्तविक मालिक से उसकी मुलाकात हो गई।
उसने कहा, ‘यह गाय मेरी है तुम कहाँ लिये जा रहे हो ? इसको सजाने-सँवारने से मैं इसको पहचानने में भूल नहीं सकता।’
दान लिए ब्राह्मण ने कहा, ‘गाय तुम्हारी नहीं मेरी है क्योंकि राजा नृग ने मुझे इसे दान में दिया है। वे दोनों ब्राह्मण आपस में झगड़ते हुए मेरे समीप पहुँचे। एक ने कहा—‘यह गाय मुझे अभी-अभी दान में दी गई है।’ दूसरे ने कहा, ‘यदि ऐसी बात है तो राजा द्वारा मेरी गाय चुरा ली गई है।’
मैंने दोनों ब्राह्मणों से अनुनय-विनय की और कहा, ‘मैं लाख उच्चकोटि की गाय दूँगा। आप लोग यह गाय मुझे वापिस कर दीजिए।’
गाय के वास्तविक मालिक ने कहा, ‘मैं अपनी गाय के बदले कुछ नहीं लूँगा और वह चला गया।’
दूसरे ने कहा, ‘एक लाख क्या कई लाख गाएँ भी मुझे दीजिए तो भी मैं लेने को तैयार नहीं।’ और दूसरा ब्राह्मण भी चला गया।
‘कालक्रम से मेरी मृत्यु हुई। मैं यमलोक पहुँचा।’ यमराज ने पूछा, ‘आप ने बहुत पुण्य कार्य किए हैं किन्तु एक छोटा-सा पाप भी आपसे हुआ है। भले ही अनजाने में हुआ हो। आप बताइए कि आप पहले अपने पाप का फल भोगेंगे अथवा पुण्य का ?’ ‘‘मैंने कहा, ‘पहले पाप का ही भोग लेता हूँ।’ मेरे कहते ही मैं विशाल गिरगिट बन कर धरती पर आ गिरा। यही मेरी कहानी है।’’
जल में युद्ध
क्षीरसागर से कौन परिचित नहीं ? माना जाता है
कि इसमें
भगवान विष्णु शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं। यह पूरा सागर पानी से नहीं
शुद्ध दूध से भरा रहता है। यह भी माना जाता है कि भगवान विष्णु अपनी पत्नी
लक्ष्मी के साथ क्षीर सागर में एक बड़े कमल-पुष्प पर विश्राम करते हैं।
इसी कारण क्षीरसागर की प्रसिद्धि है। यह कहानी क्षीरसागर से ही आरम्भ होती है।
क्षीरसागर में एक त्रिकूट नामक एक प्रसिद्ध एवं श्रेष्ठ पर्वत था। उसकी ऊँचाई आसमान छूती थी। उसकी लम्बाई-चौड़ाई भी चारों ओर काफी विस्तृत थी। उसके तीन शिखर थे। पहला सोने का। दूसरा चाँदी का तीसरा लोहे का। इनकी चमक से समुद्र, आकाश और दिशाएँ जगमगाती रहती थीं। इनके अलावा उसकी और कई छोटी चोटियाँ थीं जो रत्नों और कीमती धातुओं से बनी हुई थीं। वे भी अपनी प्रभा से चारों दिशाओं को प्रकाशित करती थीं। इस पर्वत पर विभिन्न प्रकार के वृक्ष एवं लता-बल्लरियाँ थीं जिनमें भाँति-भाँति के फूल लगते थे। निर्झरों के झर-झर झरते रहने से चारों ओर एक संगीत-सा फैलता रहता था। सब ओर से समुद्र की लहरें आकर इस पर्वत के निचले भाग से टकरातीं जिससे प्रतीत होता कि समुद्र इनके पाँव पखार रहा था।
पर्वत की तलहटी में तरह-तरह के जंगली जानवर बसेरा बनाए हुए थे। इसके ऊपर बहुत-सी नदियाँ और सरोवर भी थे। इनका जल अत्यन्त स्वच्छ था।
इस पर्वतराज त्रिकूट की तराई में एक तपस्वी महात्मा रहते थे जिनका नाम वरुण था। महात्मा वरुण ने एक अत्यन्त सुन्दर उद्यान में अपनी कुटी बनाई थी। इस उद्यान का नाम इसके अनुकूल ही ऋतुमान था। इसमें सब ओर अत्यन्त ही दिव्य वृक्ष शोभा पा रहे थे, जो सदा फलों-फूलों से लदे रहते थे। इस उपवन में जो वृक्ष प्रमुखता से इसकी शोभा बढ़ा रहे थे, उसके नाम थे पारिजात, मन्दार, गुलाब, अशोक, चम्पा, आम्र, नारियल, कटहल, सुपारी, खजूर, अर्जुन, रीठा, महुआ, बिजौरा, साखू, असन, ताड़, तमाल, गूलर, पाकर, बरगद, पलाश, चन्दन, कचनार, साल, नीम, देवदारु, ईख, केला, जामुन, बेर, आँवला, रुद्राक्ष, हर्रे, बेल, कैथ, नीबू आदि। इस उद्यान में एक बड़ा-सा सरोवर भी था जिसमें सुनहले कमल भी खिले रहते थे तथा विविध जाति के कुमुद, उत्पल, शतदल कमल अपनी अनूठी छटा बिखराते थे। भँवरे मतवाले होकर गूँज रहे थे। सुन्दर-सुन्दर पक्षी सदा कलरव कर रहे थे। हंस, चक्रवाक और सारस आदि पक्षी झुण्ड के झुण्ड भरे हुए थे। पण्डुब्बी बत्तख और पपीहे कूदते रहते थे। मछली और कछुवों के खिलवाड़ से कमल के फूल जो हिलते थे उससे उसका पराग झड़कर सरोवर जल को अत्यन्त सुगन्धित कर देता था।
कदम्ब, नरकुल, बेंत, बेन आदि वृक्षों से यह घिरा रहता था। कुन्द कुरबक, अशोक, सिरस, वनमल्लिका, सोनजूही, नाग, हरसिंहार, मल्लिका शतपत्र, माधवी और मोगरा आदि सुन्दर-सुन्दर पुष्प वृक्षों से प्रत्येक ऋतु में यह महात्मा वरुण का सरोवर शोभायमान रहता था।
क्षीरसागर से त्रिकूट पर्वत पर सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था। एक बार एक दर्दनाक घटना घट गई। इस पर्वत के घोर जंगल में एक विशाल मतवाला हाथी रहता था। एक—गजराज। वह कई शक्तिशाली हाथियों का सरदार था। उसके पीछे बड़े-बड़े हाथियों के झुण्ड के झुण्ड चलते थे। इस गजराज से, उसके महान् बल के कारण बड़े-से-बड़े हिंसक जानवर भी डरते थे सिंह, बाघ, गैंडे आदि उसकी गन्ध सूँघकर ही भाग खड़े होते थे किन्तु एक बात यह भी थी कि उसकी कृपा से लंगूर, भैंसे, भेड़िए, हिरण, रीछ, वनैले कुत्ते, खरगोश आदि छोटे जीव निर्भय होकर घूमा करते थे क्योंकि उसके रहते कोई भी हिंसक जानवर उस पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकता था।
गजराज मदमस्त था। उसके सिर के पास से टपकते मद का पान करने के लिए भँवरे उसके साथ गूँजते जाते थे।
एक दिन बड़े जोर की धूप थी। वह प्यास से व्याकुल हो गया। अपने झुण्ड के साथ वह उसी सरोवर में उतर पड़ा जो त्रिकूट की तराई में स्थित था। जल उस समय अत्यन्त शीतल एवं अमृत के समान मधुर था। पहले तो उस गजराज ने अपनी सूँड़ से उठा-उठा जी भरकर इस अमृत-सदृश्य जल का पान किया। फिर उसमें स्नान करके अपनी थकान मिटाई।
इसके पश्चात उसका ध्यान जलक्रीड़ा की ओर गया। वह सूँड़ से पानी भर-भर अन्य हाथियों पर फेंकने लगा और दूसरे भी वही करने लगे। मदमस्त गजराज सबकुछ भूलकर जल-क्रीड़ाका आनन्द उठाता रहा। उसे पता नहीं था कि उस सरोवर में एक बहुत बलवान ग्राह भी रहता था। उस ग्राह ने क्रोधित होकर उस गजराज के पैर को जोरों से पकड़ लिया और उसे खींचकर सरोवर के अन्दर ले जाने लगे। उसके पैने दातों के गड़ने से गजराज के पैर से रक्त का प्रवाह निकल पड़ा जिससे वहाँ का पानी लाल हो आया।
उसके साथ के हाथियों और हथिनियों को गजराज की इस स्थिति पर बहुत चिंता हुई। उन्होंने एक साथ मिलकर गजराज को जल के बाहर खींचने का प्रयास किया किंतु वे इसमें सफल नहीं हुए। वे घबराकर ज़ोर-ज़ोर से चिंघाड़ने लगे। इस पर दूर-दूर से आकर हाथियों के कई झुण्डों ने गजराज के झुण्डों से मिलकर उसे बाहर खींचना चाहा किन्तु यह सम्मिलित प्रयास भी विफल रहा।
सभी हाथी शान्त होकर अलग हो गए। अब ग्राह और गजराज में घोर युद्ध चलने लगा दोनों अपने रूप में काफी बलशाली थे और हार मानने वाले नहीं थे।
कभी गजराज ग्राह को खींचकर पानी से बाहर लाता तो कभी ग्राह गजराज को खींचकर पानी के अन्दर ले जाता किन्तु गजराज का पैर किसी तरह ग्राह के मुँह से नहीं छूट रहा था बल्कि उसके दाँत गजराज के पैर में और गड़ते ही जा रहे थे और सरोवर का पानी जैसे पूरी तरह लाल हो आया था।
गज और ग्राह के बीच युद्ध कई दिनों तक चला। अन्त में अधिक रक्त बह जाने के कारण गजराज शिथिल पड़ने लगा। उसे लगा कि अब वह ग्राह के हाथों परास्त हो जाएगा।
उसको इस समय कोई उपाय नहीं सूझा और अपनी मृत्यु को समीप पाकर उसे भगवान नारायण की याद आयी। उसने एक कमल का फूल तोड़ा और उसे आसमान की ओर इस तरह उठाया जैसे वह उसे भगवान को अर्पित कर रहा हो। अब तक वह ग्राह द्वारा खींचे जाने से सरोवर के मध्य गहरे जल में चला गया था और उसकी सूड़ का मात्र वह भाग ही ऊपर बचा था जिसमें उसने लाल कमल-पुष्प पकड़ रखा था।
उसने अपनी शक्ति को पूरी तरह से भूलकर और अपने को पूरी तरह असहाय घोषित कर नारायण को पुकारा। भगवान समझ गए कि इसे अपनी शक्ति का मद जाता रहा और वह पूरी तरह से मेरा शरणागत है। जब नारायण ने देखा कि मेरे अतिरिक्त यह किसी को अपना पक्षक नहीं मानता तो नारायण के ‘ना’ के उच्चारण के साथ ही वह गरुण पर सवार होकर चक्र धारण किए हुए सरोवर के किनारे पहुँच गए। उन्होंने देखा कि गजेन्द्र डूबने ही वाला है। वह शीघ्रता से गरुण से कूद पड़े। इस समय तक बहुत से देवी-देवता भी भगवान के आगमन को समझकर वहाँ उपस्थित हो गए थे। सभी के देखते-देखते भगवान ने गजराज और गजेन्द्र को एक क्षण में सरोवर से खींचकर बाहर निकाला। देवताओं ने आश्चर्य से देखा, उन्होंने सुदर्शन से इस तरह ग्राह का मुँह फाड़ दिया कि गजराज के पैर को कोई क्षति नहीं पहुँची।
ग्राह देखते-देखते तड़प कर मर गया और गजराज भगवान की कृपा-दृष्टि से पहले की तरह स्वस्थ हो गया। गजराज ने भावविभोर होकर नारायण की स्तुति की और कहा आप शरणागतों के उद्धारक हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार हो। जीव व्यर्थ में ही अहंकार में पड़ अपने को सर्व-समर्थ मान बैठता है। आपकी अपार शक्ति के सामने सभी प्राणियों की सम्मिलित शक्ति भी कुछ काम नहीं आ सकती। आप ही सभी प्राणियों के स्रष्टा, संरक्षक और संहारक हैं।
जिस समय गजेन्द्र श्रीनारायण की स्तुति कर रहा था, सरोवर किनारे उपस्थित देवता आपस में भगवान के कृपालु स्वभाव के सम्बन्ध में वार्तालाप कर रहे थे।
उनमें से एक ने ठीक ही कहा—
‘जब तक अपनी शक्ति पर विश्वास करते रहो, ईश्वर की सहायता नहीं मिलती। जब अपने को सर्वथा तुच्छ समझ भगवान की शरण में जाओ तभी वह तत्काल तुम्हारी रक्षा करता है। कम-से-कम गजेन्द्र और ग्राह की इस घटना से तो यही शिक्षा मिलती है।’
इसी कारण क्षीरसागर की प्रसिद्धि है। यह कहानी क्षीरसागर से ही आरम्भ होती है।
क्षीरसागर में एक त्रिकूट नामक एक प्रसिद्ध एवं श्रेष्ठ पर्वत था। उसकी ऊँचाई आसमान छूती थी। उसकी लम्बाई-चौड़ाई भी चारों ओर काफी विस्तृत थी। उसके तीन शिखर थे। पहला सोने का। दूसरा चाँदी का तीसरा लोहे का। इनकी चमक से समुद्र, आकाश और दिशाएँ जगमगाती रहती थीं। इनके अलावा उसकी और कई छोटी चोटियाँ थीं जो रत्नों और कीमती धातुओं से बनी हुई थीं। वे भी अपनी प्रभा से चारों दिशाओं को प्रकाशित करती थीं। इस पर्वत पर विभिन्न प्रकार के वृक्ष एवं लता-बल्लरियाँ थीं जिनमें भाँति-भाँति के फूल लगते थे। निर्झरों के झर-झर झरते रहने से चारों ओर एक संगीत-सा फैलता रहता था। सब ओर से समुद्र की लहरें आकर इस पर्वत के निचले भाग से टकरातीं जिससे प्रतीत होता कि समुद्र इनके पाँव पखार रहा था।
पर्वत की तलहटी में तरह-तरह के जंगली जानवर बसेरा बनाए हुए थे। इसके ऊपर बहुत-सी नदियाँ और सरोवर भी थे। इनका जल अत्यन्त स्वच्छ था।
इस पर्वतराज त्रिकूट की तराई में एक तपस्वी महात्मा रहते थे जिनका नाम वरुण था। महात्मा वरुण ने एक अत्यन्त सुन्दर उद्यान में अपनी कुटी बनाई थी। इस उद्यान का नाम इसके अनुकूल ही ऋतुमान था। इसमें सब ओर अत्यन्त ही दिव्य वृक्ष शोभा पा रहे थे, जो सदा फलों-फूलों से लदे रहते थे। इस उपवन में जो वृक्ष प्रमुखता से इसकी शोभा बढ़ा रहे थे, उसके नाम थे पारिजात, मन्दार, गुलाब, अशोक, चम्पा, आम्र, नारियल, कटहल, सुपारी, खजूर, अर्जुन, रीठा, महुआ, बिजौरा, साखू, असन, ताड़, तमाल, गूलर, पाकर, बरगद, पलाश, चन्दन, कचनार, साल, नीम, देवदारु, ईख, केला, जामुन, बेर, आँवला, रुद्राक्ष, हर्रे, बेल, कैथ, नीबू आदि। इस उद्यान में एक बड़ा-सा सरोवर भी था जिसमें सुनहले कमल भी खिले रहते थे तथा विविध जाति के कुमुद, उत्पल, शतदल कमल अपनी अनूठी छटा बिखराते थे। भँवरे मतवाले होकर गूँज रहे थे। सुन्दर-सुन्दर पक्षी सदा कलरव कर रहे थे। हंस, चक्रवाक और सारस आदि पक्षी झुण्ड के झुण्ड भरे हुए थे। पण्डुब्बी बत्तख और पपीहे कूदते रहते थे। मछली और कछुवों के खिलवाड़ से कमल के फूल जो हिलते थे उससे उसका पराग झड़कर सरोवर जल को अत्यन्त सुगन्धित कर देता था।
कदम्ब, नरकुल, बेंत, बेन आदि वृक्षों से यह घिरा रहता था। कुन्द कुरबक, अशोक, सिरस, वनमल्लिका, सोनजूही, नाग, हरसिंहार, मल्लिका शतपत्र, माधवी और मोगरा आदि सुन्दर-सुन्दर पुष्प वृक्षों से प्रत्येक ऋतु में यह महात्मा वरुण का सरोवर शोभायमान रहता था।
क्षीरसागर से त्रिकूट पर्वत पर सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था। एक बार एक दर्दनाक घटना घट गई। इस पर्वत के घोर जंगल में एक विशाल मतवाला हाथी रहता था। एक—गजराज। वह कई शक्तिशाली हाथियों का सरदार था। उसके पीछे बड़े-बड़े हाथियों के झुण्ड के झुण्ड चलते थे। इस गजराज से, उसके महान् बल के कारण बड़े-से-बड़े हिंसक जानवर भी डरते थे सिंह, बाघ, गैंडे आदि उसकी गन्ध सूँघकर ही भाग खड़े होते थे किन्तु एक बात यह भी थी कि उसकी कृपा से लंगूर, भैंसे, भेड़िए, हिरण, रीछ, वनैले कुत्ते, खरगोश आदि छोटे जीव निर्भय होकर घूमा करते थे क्योंकि उसके रहते कोई भी हिंसक जानवर उस पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकता था।
गजराज मदमस्त था। उसके सिर के पास से टपकते मद का पान करने के लिए भँवरे उसके साथ गूँजते जाते थे।
एक दिन बड़े जोर की धूप थी। वह प्यास से व्याकुल हो गया। अपने झुण्ड के साथ वह उसी सरोवर में उतर पड़ा जो त्रिकूट की तराई में स्थित था। जल उस समय अत्यन्त शीतल एवं अमृत के समान मधुर था। पहले तो उस गजराज ने अपनी सूँड़ से उठा-उठा जी भरकर इस अमृत-सदृश्य जल का पान किया। फिर उसमें स्नान करके अपनी थकान मिटाई।
इसके पश्चात उसका ध्यान जलक्रीड़ा की ओर गया। वह सूँड़ से पानी भर-भर अन्य हाथियों पर फेंकने लगा और दूसरे भी वही करने लगे। मदमस्त गजराज सबकुछ भूलकर जल-क्रीड़ाका आनन्द उठाता रहा। उसे पता नहीं था कि उस सरोवर में एक बहुत बलवान ग्राह भी रहता था। उस ग्राह ने क्रोधित होकर उस गजराज के पैर को जोरों से पकड़ लिया और उसे खींचकर सरोवर के अन्दर ले जाने लगे। उसके पैने दातों के गड़ने से गजराज के पैर से रक्त का प्रवाह निकल पड़ा जिससे वहाँ का पानी लाल हो आया।
उसके साथ के हाथियों और हथिनियों को गजराज की इस स्थिति पर बहुत चिंता हुई। उन्होंने एक साथ मिलकर गजराज को जल के बाहर खींचने का प्रयास किया किंतु वे इसमें सफल नहीं हुए। वे घबराकर ज़ोर-ज़ोर से चिंघाड़ने लगे। इस पर दूर-दूर से आकर हाथियों के कई झुण्डों ने गजराज के झुण्डों से मिलकर उसे बाहर खींचना चाहा किन्तु यह सम्मिलित प्रयास भी विफल रहा।
सभी हाथी शान्त होकर अलग हो गए। अब ग्राह और गजराज में घोर युद्ध चलने लगा दोनों अपने रूप में काफी बलशाली थे और हार मानने वाले नहीं थे।
कभी गजराज ग्राह को खींचकर पानी से बाहर लाता तो कभी ग्राह गजराज को खींचकर पानी के अन्दर ले जाता किन्तु गजराज का पैर किसी तरह ग्राह के मुँह से नहीं छूट रहा था बल्कि उसके दाँत गजराज के पैर में और गड़ते ही जा रहे थे और सरोवर का पानी जैसे पूरी तरह लाल हो आया था।
गज और ग्राह के बीच युद्ध कई दिनों तक चला। अन्त में अधिक रक्त बह जाने के कारण गजराज शिथिल पड़ने लगा। उसे लगा कि अब वह ग्राह के हाथों परास्त हो जाएगा।
उसको इस समय कोई उपाय नहीं सूझा और अपनी मृत्यु को समीप पाकर उसे भगवान नारायण की याद आयी। उसने एक कमल का फूल तोड़ा और उसे आसमान की ओर इस तरह उठाया जैसे वह उसे भगवान को अर्पित कर रहा हो। अब तक वह ग्राह द्वारा खींचे जाने से सरोवर के मध्य गहरे जल में चला गया था और उसकी सूड़ का मात्र वह भाग ही ऊपर बचा था जिसमें उसने लाल कमल-पुष्प पकड़ रखा था।
उसने अपनी शक्ति को पूरी तरह से भूलकर और अपने को पूरी तरह असहाय घोषित कर नारायण को पुकारा। भगवान समझ गए कि इसे अपनी शक्ति का मद जाता रहा और वह पूरी तरह से मेरा शरणागत है। जब नारायण ने देखा कि मेरे अतिरिक्त यह किसी को अपना पक्षक नहीं मानता तो नारायण के ‘ना’ के उच्चारण के साथ ही वह गरुण पर सवार होकर चक्र धारण किए हुए सरोवर के किनारे पहुँच गए। उन्होंने देखा कि गजेन्द्र डूबने ही वाला है। वह शीघ्रता से गरुण से कूद पड़े। इस समय तक बहुत से देवी-देवता भी भगवान के आगमन को समझकर वहाँ उपस्थित हो गए थे। सभी के देखते-देखते भगवान ने गजराज और गजेन्द्र को एक क्षण में सरोवर से खींचकर बाहर निकाला। देवताओं ने आश्चर्य से देखा, उन्होंने सुदर्शन से इस तरह ग्राह का मुँह फाड़ दिया कि गजराज के पैर को कोई क्षति नहीं पहुँची।
ग्राह देखते-देखते तड़प कर मर गया और गजराज भगवान की कृपा-दृष्टि से पहले की तरह स्वस्थ हो गया। गजराज ने भावविभोर होकर नारायण की स्तुति की और कहा आप शरणागतों के उद्धारक हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार हो। जीव व्यर्थ में ही अहंकार में पड़ अपने को सर्व-समर्थ मान बैठता है। आपकी अपार शक्ति के सामने सभी प्राणियों की सम्मिलित शक्ति भी कुछ काम नहीं आ सकती। आप ही सभी प्राणियों के स्रष्टा, संरक्षक और संहारक हैं।
जिस समय गजेन्द्र श्रीनारायण की स्तुति कर रहा था, सरोवर किनारे उपस्थित देवता आपस में भगवान के कृपालु स्वभाव के सम्बन्ध में वार्तालाप कर रहे थे।
उनमें से एक ने ठीक ही कहा—
‘जब तक अपनी शक्ति पर विश्वास करते रहो, ईश्वर की सहायता नहीं मिलती। जब अपने को सर्वथा तुच्छ समझ भगवान की शरण में जाओ तभी वह तत्काल तुम्हारी रक्षा करता है। कम-से-कम गजेन्द्र और ग्राह की इस घटना से तो यही शिक्षा मिलती है।’
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